आंखे खुलीं,
जग मिला,
और मिले,
कई नाते,
उम्मीदों के बोझ से लथपथ,
मैंने,
जाने कितने आँखों को देखा।
उन उम्मीदों के बोझ का दामन,
सिर पर ले बड़ा हुआ मैं,
पर हाय री फूटी किस्मत मेरी,
ये बोझ बढ़ा ही जाए।
सामाजिक संरचना देखो,
बन गया मानों अभिशाप,
सेठ बैठकर भट्टी सेकें,
दीन हुआ नीलाम।
आंखे अपनी,
सपने उनके,
कर रहा दीन साकार।
अपनी शर्तो पर,
जीकर अब,
उम्मीद नयी,
एक लानी है,
अपने मन को,
सुन कर फिर अब.
उम्मीद सभी की,
सजानी है।
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