कभी जिंदगी वीरान सी लगती है , लगता है जिंदगी उसी पेड़ के तरह है, जो खड़ी तो है पर वीरान सी है।
अपनी खुशियाँ उस पत्तो की तरह सुख सी गयी हैं, जैसे ख़ुशी के एक कतरे को तरस सी गयी हैं ।
नाकामी तो पेड़ों की जड़ों की तरह ऐसी फैली हैं, की खुशियों की जमीं मानों कम सी पड़ गयी हैं ।
तरस सी गयी है ये आरजू, की किसी चीज की जुस्तेजू ना रही अब ।
कभी कभी जहन में एक बात आती है, दिलासा दिलाती है, हौसला सी देती है, और फिर चली जाती है ।
दादा जी के चंद वो बातें साहस सी दे जाती हैं , डटे रहो, लगे रहो, झुको नहीं बढे चलो ।
बढे चलो बढे चलो, झुको नहीं बढे चलो, हाथ में मशाल लो, बढे चलो बढे चलो, डरो नहीं बढे चलो।
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